जयकुमार रुसवा के दोहे
कितनी पूँजी पास है, इसका छोड़ ख्याल।
अगर नहीं धन प्रेम का, समझ उसे कंगाल।।धर्म, आस्था शब्द भी, करते खड़े सवाल।
जबसे मिलने लग गए, मठ में नर-कंकाल।।
वह गहरे षड्यंत्र का, था काला परिणाम।
पूरी बस्ती जल गई, हुई आग बदनाम।।
अनपढ़ नेता दे रहा, है जनता को ज्ञान।
राजनीति में अकल से, होती भैंस महान।।
महका-महका तब दिखे, आनन पर उल्लास।
फूलों का अंतस रखो, बाँटों रंग-सुवास।।
जीवन जैसे बन गया, है साँसों पर भार।
कहीं नजर आते नहीं, चेहरे पानीदार।।
पाले अंतस में रहे, हम बारिश का चाव।
लेकिन अब तक ना थमा, बादल का भटकाव।।
सारे नेता खेलते, घोटालों का खेल।
है कानूनी ऊँट की, उनके हाथ नकेल।।
इस चिन्ता को छोडक़र, मान हो कि अपमान।
सच घायल ना हो कहीं, रखना इसका ध्यान।।
कद महँगाई का बढ़ा, ऐसे अफलातून।
अब तो दोनों जून ही, रुला रहा परचून।।
अपने जीवन की कथा, बिल्कुल यार सपाट।
तपे खूब फिर भी हमें, न घर मिला ना घाट।।
मंत्री, सांसद, पार्षद, देखी सबकी चाल।
लगे एक ही डाल के, हमको सब बैताल।।
सर्प दंश सहता रहा, घिसा घाट दर घाट।
तब चंदन को मिल सका, सजने हेतु ललाट।।
कविता वाले मंच के, बदल गए सुर-साज।
जब से कवि का रूप धर, जमे चुटकुलेबाज।।
कौन पराई पीर से, रखता आज लगाव।
मत औरों को तू दिखा, अपने मन के घाव।।
राजनीति कैसे बने, मानसरोवर झील।
इसे दलों ने कर दिया, दलदल में तबदील।।
दायित्वों से भागकर, धरे जोगिया भेष।
कर्मयोग पर दे रहे, वे साधू उपदेश।।
जलन, ईष्र्या, द्वेष को, अपने मन से त्याग।
जलना है तो यूँ जलो, जैसे जले चिराग।।
है आँसू की बूँद का, अति लघुतम आकार।
महासिन्धु का मानिए, पर इसको आधार।।
पड़े अकेले वो करें, अब किससे फरियाद।
बहू ले गई पूत को, बेटी को दामाद।।
समय बड़ा बलवान है, समझो इसका अर्थ।
ये अर्जुंन के बाण भी, कर देता है व्यर्थ।।
उसको टूटी झौंपड़ी, देता नियति-विधान।
खड़े करें मजदूर जो, आलीशान महान।।
यह सच है व्यवहार का, जितना करो प्रयास।
अधिक देर टिकता नहीं, कपट संग उल्लास।।
करे शब्द की साधना, हो पीड़ा से प्यार।
कलम उसी कवि की करे, कविता का श्रृंगार।।
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