राजकुमार 'राज' के दोहे
अक्सर जो कहते फिरें, सोलह दूनी आठ।पढ़ा रहे हैं वे हमें, नैतिकता का पाठ।।
2
कर्ता ही करता रहा, मेरे सारे काम।
मैं-मेरी, में ही रहा, मैं अब तक बदनाम।।
3
सच की परिभाषा नयी, कथनी लच्छेदार।
मिटा रहे कुछ इस तरह, था जो भ्रष्टाचार।।
4
शिक्षा के व्यापार ने, बदले सारे ढंग।
नैतिकता ईमान भी, हुए आज बदरंग।।
5
घडिय़ाली आँसू लिए, मिलते हैं अब लोग।
अन्दर-अन्दर दुश्मनी, बाहर से मृदुयोग।।
6
गुरबत ने आँसू दिये और नए अहसास।
अपना कोई है नहीं, आज हुआ विश्वास।।
7
धारा के विपरीत भी, चलती जैसे मीन।
ऐसा हो जब हौसला, होंगे भाव प्रवीन।।
8
उलझा माया जाल में, भूल गया रस रंग।
कैसे रक्खूँ मस्तियाँ, अब जीवन के संग।।
9
रावण क्यों मरता नहीं, जलकर भी हर बार।
निज अन्त: में जो छिपा, बनकर बुरा विचार।।
10
सच होंगे सपने सभी, खुली आँख से देख।
बिना किये मिलता नहीं, ये विधना का लेख।।
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