ज़हीर कुरेसी के दोहे
जो सत्ता को पा गया, उसके ही घर-द्वार|
प्रजातंत्र में भी लगा, राजा का दरबार||
प्रजातंत्र में भी लगा, राजा का दरबार||
सबको लड़ने ही पड़े, अपने-अपने युद्ध|
चाहे राजा राम हों, चाहे गौतम बुद्ध||
चाहे राजा राम हों, चाहे गौतम बुद्ध||
उसने सबके सामने, छीना मुँह का कौर|
है ये स्पर्धा का नहीं, छीन-झपट का दौर||
राजनीति में दोस्तों, कुछ भी नहीं विचित्र|
अनायास पानी बना, अंगारों का मित्र||
वस्त्रहीन होकर घुसे, करने लगे किलोल|
जबरन ही पढ़ने लगे, नदिया का भूगोल||
अंधों के राजा बने, अक्सर काने लोग|
राजनीति करती रही, ऐसे सफल प्रयोग||
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