डॉ उर्मिलेश के दोहे
इतने थाने देखकर, अक्ल हुई हैरान|
इस बस्ती में किस तरह, जिंदा हैं इंसान||
पल में लगा 'ज़लील' वह, पल में लगा 'जलील'|
दृश्य नहीं हाँ दृष्टि ही, होती है अश्लील||
अपने संयम की सदा, तोड़-तोड़ सौगंध|
हम खुद से ही जी रहे, नाजायज संबंध||
गिद्ध यहाँ से उड़ गए और उड़ गई चील|
बैठ गए उनकी जगह, 'ब्लाक' और तहसील||
तू भी तो अब मौन है, मैं भी हूँ अब मौन|
फिर ये अपने बीच में, बोल रहा है कौन||
ज़लील- अधम/नीच
जलील- प्रतिष्ठित/महान
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