बाबू बालमुकुन्द गुप्त के दोहे
सेल गई बरछी गई, गये तीर तरवार|
घड़ी छड़ी चसमा रहे, छत्रिन के हथियार||
विश्वामित्र वसिष्ठ के, वंशज हा! श्रीराम|
शव चीरत है पेट हित, अरु बेचत है चाम||
जाति ढई सद्गुण ढये, खोये वरन विचार|
भयो अधम हू तो अधम, हमरौ सब व्यवहार||
विप्रन छोड़यो होमपत, अरु छत्रिन तरवार|
बनिकन के पुत्रन तज्यो, अपनो सद्व्यवहार||
अपनो कुछ उद्यम नहीं, तकत पराई आस|
अब या भारत भूमि में, सबै बरन हैं दास||
अब लौ हम जीवित रहे, लै लै तुम्हरौ नाम|
सोहू अब भूलन लगे, अहो राम गुनधाम||
धर्म्म कर्म्म संयम नियम, जप तप जोग विराग|
इन सब को बहु दिन भये, खेलि चुके हम फाग||
तहाँ टिकै क्यों बाहुबल, जिन घर में वा-फूट|
बल बपुरौ कैसे रहै, जाहि बाँह जब टूट||
जहाँ लरै सुत बाप संग और भ्रात सौं भ्रात|
तिनके मस्तक सौं हटै, कैसे पर की लात||
हरे राम केहि पाप ते, भारत भूमि मझार|
हाड़न की चक्की चलैं, हाड़न कौ व्यापार||
यह दुर्गति नर देह की, कौन पाप से राम|
सांच कहो क्या होइ है, अब हमरौ परिनाम||
करहि दसहरो आपको, दुःख ताप सब भूल|
पुनि भारत सुखमय करौ, होहु राम अनुकूल||
पुनि हिंदून के हीय कौ, बाढे हर्ष हुलास|
बने रहें प्रभु आपके, चरन कमल के दास||
बहु दिन बीते राम प्रभु, खोये अपनो देस|
खोवत है अब बैठि कै, भाषा भोजन भेस||
नहीं गाँव में झूपड़ो, नहीं जंगल में खेत|
घर ही बैठे हम कियो, अपनों कंचन रेत||
कौन काज जनमय मरत, पूछत जोरे हाथ|
कौन पाप यह गति भई, हमरी रघुकुल नाथ?
घड़ी छड़ी चसमा रहे, छत्रिन के हथियार||
विश्वामित्र वसिष्ठ के, वंशज हा! श्रीराम|
शव चीरत है पेट हित, अरु बेचत है चाम||
जाति ढई सद्गुण ढये, खोये वरन विचार|
भयो अधम हू तो अधम, हमरौ सब व्यवहार||
विप्रन छोड़यो होमपत, अरु छत्रिन तरवार|
बनिकन के पुत्रन तज्यो, अपनो सद्व्यवहार||
अपनो कुछ उद्यम नहीं, तकत पराई आस|
अब या भारत भूमि में, सबै बरन हैं दास||
अब लौ हम जीवित रहे, लै लै तुम्हरौ नाम|
सोहू अब भूलन लगे, अहो राम गुनधाम||
धर्म्म कर्म्म संयम नियम, जप तप जोग विराग|
इन सब को बहु दिन भये, खेलि चुके हम फाग||
तहाँ टिकै क्यों बाहुबल, जिन घर में वा-फूट|
बल बपुरौ कैसे रहै, जाहि बाँह जब टूट||
जहाँ लरै सुत बाप संग और भ्रात सौं भ्रात|
तिनके मस्तक सौं हटै, कैसे पर की लात||
हरे राम केहि पाप ते, भारत भूमि मझार|
हाड़न की चक्की चलैं, हाड़न कौ व्यापार||
यह दुर्गति नर देह की, कौन पाप से राम|
सांच कहो क्या होइ है, अब हमरौ परिनाम||
करहि दसहरो आपको, दुःख ताप सब भूल|
पुनि भारत सुखमय करौ, होहु राम अनुकूल||
पुनि हिंदून के हीय कौ, बाढे हर्ष हुलास|
बने रहें प्रभु आपके, चरन कमल के दास||
बहु दिन बीते राम प्रभु, खोये अपनो देस|
खोवत है अब बैठि कै, भाषा भोजन भेस||
नहीं गाँव में झूपड़ो, नहीं जंगल में खेत|
घर ही बैठे हम कियो, अपनों कंचन रेत||
कौन काज जनमय मरत, पूछत जोरे हाथ|
कौन पाप यह गति भई, हमरी रघुकुल नाथ?
साभार बालमुकुन्द गुप्त ग्रंथावली
सम्पादक- नत्थन सिंह
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